एक कहानी सुनाता हूँ
ज़रा ध्यान से सुनना
यह महामारी की कहानी नहीं
यह इंसानियत की कहानी है
इसलिए ध्यान से सुनना |
एक परिवार निकल चला था
गाँव से गाँव, गाँव से शहर
बड़ी इमारतों के बीच
लोगों की हलचल के बीच
गाड़ियों के शोर के बीच |
मगर अनजान थे इस बात से
कि ये शहर किसी का नहीं
न ये आपकी परवाह करता है
और न उन लोगों की
जिन्होंने इनकी इमारतों को बनाया है |
ये शहर बस लोगों का झुंड है
कहने को तो सब इंसान हैं
पर शायद इंसानियत नहीं
अब ज़रा आप ही देखिये
कि ये कैसी इंसानियत है |
कल ही मैंने अपनी इन आँखों से देखा
जो शायद मैं देख न सका
मैंने उसी परिवार को देखा
जो शहर आकर कहीं खो गए हैं
जिस शहर में उसका कोई अपना नहीं |
तभी तो
जब सब अपने घरों में बैठे थे
तब ये परिवार घरों के बाहर
अपने घर जाने की
उम्मीद लगाए बैठा था, सिर्फ उम्मीद |
क्योंकि ये शहर इनका नहीं
यहाँ के लोग इनके नहीं सच बताऊँ तो
इस शहर में तो कोई किसी का नहीं
और इंसानियत? बिल्कुल नहीं |
तो क्या?
शहर जाना छोड़ दें
ये तो असंभव सी बात हुई
क्योंकि शहर है तो देश है
बिना इसके प्रगति कैसी?
फिर उस परिवार का क्या?
ये एक विडंबना है
परिवार प्रगति का हिस्सा है या नहीं?
किसी को नहीं पता, पर
प्रगति के बीच वो परिवार कहीं खो रहा है |
ये सिलसिला शायद कभी न रुके
प्रगति और परिवार की ये नोक-झोंक
निरंतर चलती ही रहे और यह समाज?
कठपुतली की तरह अपना खेल खेलता रहे ||
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